पर्यावरण एवं विज्ञान >> पर्यावरण दशा और दिशा पर्यावरण दशा और दिशागिरिराजशरण अग्रवाल,मीना अग्रवाल
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पर्यावरण की समस्याओं के लगभग हर पहलू को छूती हुई एक विशिष्ट पुस्तक
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पशु-पक्षियों के लिए ही नहीं, स्वयं अपने लिए भी हमने इस धरती को रहने
योग्य नहीं छोड़ा है। चील, गिद्ध और कौए, जो धरती के प्रदूषित वातावरण से
बचकर आकाश के स्वच्छ वातावरण में साँस लेने के लिए उड़ान भर लिया करते थे,
अब वह आकाश भी उनके अनुकूल नहीं रहा है। आकाश को भी मनुष्य ने कचरे और
प्रदूषण से बुरी तरह भर दिया है।
इसी चिंता की अभिवयक्ति के लिए इस पुस्तक का सृजन हुआ है। पर्यावरण और इसकी समस्या के लगभग हर पहलू को छूती हुई एक विशिष्ट पुस्तक-पर्यावरणः दशा और दिशा।
इसी चिंता की अभिवयक्ति के लिए इस पुस्तक का सृजन हुआ है। पर्यावरण और इसकी समस्या के लगभग हर पहलू को छूती हुई एक विशिष्ट पुस्तक-पर्यावरणः दशा और दिशा।
कागा सब तन खाइयो
एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित सूचनात्मक रिपोर्ट पढ़कर मैं
गहरी चिंता में डूब गया हूँ। रिपोर्ट इस प्रकार है-
‘विगत कुछ समय से उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र से गिद्ध और चील जैसे पक्षियों के, जो भारी संख्या में स्थान-स्थान पर दिखाई दिया करते थे, लुप्त हो जाने की चर्चा चल रही थी। चीलों और गिद्धों को हम प्रायः आकाश की ऊँचाइयों में उड़ते देखते हैं। जंगलों और मैदानों में मुर्दा जानवरों का मांस खाते हुए और बड़े-बड़े समूहों में बैठे देखते हैं, किंतु अब कुछ समय से ये पक्षी बहुत कम देखने में आ रहे हैं। ये गिद्ध और चीलें कहाँ चली गईं ? ये पक्षी किस कारण लुप्त हो गए ? अभी हम इसका पता लगा नहीं पाए थे कि सुबह से शाम तक हमारे प्रत्येक घर में शोर मचाते हुए कौए भी ग़ायब होने लगे। उत्तरी भारत में बड़ी संख्या में पाया जाने वाला यह पक्षी अब बहुत कम मात्रा में दिखाई दे रहा है। कुछ समय पहले तो सूर्योदय होने पर जब हमारी आँखें खुलती थीं तो सबसे पहले हमारे कानों में कौए की काँव-काँव आवाज़ सुनाई पड़ती थी। कौए की आवाज़ के साथ ही हम नींद से जागते थे। कागा हमारी मुँडेर पर बैठा होता और ‘काँव-काँव’ का शोर मचा रहा होता था। कई-कई बार हम रोटी के एक टुकड़े अथवा किसी अन्य खाद्य-समग्री के लिए कई-कई कौओं को आपस में लड़ते हुए और छीना-झपटी करते हुए देखते थे। अब कुछ समय से यह सब देखने में नहीं आ रहा है। कौए हमारा साथ छोड़ते जा रहे हैं और इसी तरह ग़ायब हो रहे हैं, जैसे कुछ समय पहले चील और गिद्ध ग़ायब हो गए थे।’
मैं अभी इस रिपोर्ट के पहले भाग पर ही पहुँचा हूँ, तभी मानव-अस्तित्त्व की ओर तेज़ी से बड़ रहे बड़े ख़तरे की गंभीर चिंता ने मुझे घेर लिया है। नज़र उठाकर देखता हूँ तो मेरे आँगन और घर की दीवारों पर आज भी कोई कागा नहीं है। सामने मैदान में जो नीम का वृक्ष खड़ा है, उस पर आज कोई कागा नहीं बैठा है, मानव के इस पुराने साथी को आज लुप्त होता हुआ देखकर मुझमें अधूरेपन का एक विचित्र-सा एहसास जाग गया है। किंतु मेरी चिंता का कारण यह नहीं है कि आज मैं अपने आसपास उस पक्षी को नहीं पा रहा हूँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का विषय रहा है इस पक्षी को लेकर कवियों ने कितने ही गीत, कितने ही दोहे, कितनी ही कविताएँ लिखी हैं :
‘विगत कुछ समय से उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र से गिद्ध और चील जैसे पक्षियों के, जो भारी संख्या में स्थान-स्थान पर दिखाई दिया करते थे, लुप्त हो जाने की चर्चा चल रही थी। चीलों और गिद्धों को हम प्रायः आकाश की ऊँचाइयों में उड़ते देखते हैं। जंगलों और मैदानों में मुर्दा जानवरों का मांस खाते हुए और बड़े-बड़े समूहों में बैठे देखते हैं, किंतु अब कुछ समय से ये पक्षी बहुत कम देखने में आ रहे हैं। ये गिद्ध और चीलें कहाँ चली गईं ? ये पक्षी किस कारण लुप्त हो गए ? अभी हम इसका पता लगा नहीं पाए थे कि सुबह से शाम तक हमारे प्रत्येक घर में शोर मचाते हुए कौए भी ग़ायब होने लगे। उत्तरी भारत में बड़ी संख्या में पाया जाने वाला यह पक्षी अब बहुत कम मात्रा में दिखाई दे रहा है। कुछ समय पहले तो सूर्योदय होने पर जब हमारी आँखें खुलती थीं तो सबसे पहले हमारे कानों में कौए की काँव-काँव आवाज़ सुनाई पड़ती थी। कौए की आवाज़ के साथ ही हम नींद से जागते थे। कागा हमारी मुँडेर पर बैठा होता और ‘काँव-काँव’ का शोर मचा रहा होता था। कई-कई बार हम रोटी के एक टुकड़े अथवा किसी अन्य खाद्य-समग्री के लिए कई-कई कौओं को आपस में लड़ते हुए और छीना-झपटी करते हुए देखते थे। अब कुछ समय से यह सब देखने में नहीं आ रहा है। कौए हमारा साथ छोड़ते जा रहे हैं और इसी तरह ग़ायब हो रहे हैं, जैसे कुछ समय पहले चील और गिद्ध ग़ायब हो गए थे।’
मैं अभी इस रिपोर्ट के पहले भाग पर ही पहुँचा हूँ, तभी मानव-अस्तित्त्व की ओर तेज़ी से बड़ रहे बड़े ख़तरे की गंभीर चिंता ने मुझे घेर लिया है। नज़र उठाकर देखता हूँ तो मेरे आँगन और घर की दीवारों पर आज भी कोई कागा नहीं है। सामने मैदान में जो नीम का वृक्ष खड़ा है, उस पर आज कोई कागा नहीं बैठा है, मानव के इस पुराने साथी को आज लुप्त होता हुआ देखकर मुझमें अधूरेपन का एक विचित्र-सा एहसास जाग गया है। किंतु मेरी चिंता का कारण यह नहीं है कि आज मैं अपने आसपास उस पक्षी को नहीं पा रहा हूँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का विषय रहा है इस पक्षी को लेकर कवियों ने कितने ही गीत, कितने ही दोहे, कितनी ही कविताएँ लिखी हैं :
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास
दो नैना मत खाइयो, जिन पिया-मिलन की आस
दो नैना मत खाइयो, जिन पिया-मिलन की आस
मेरी चिन्ता का कारण यह भी नहीं है कि कागा हज़ारों वर्षों तक हमारे
विश्वास और मान्यताओं के आधार पर संदेशवाहक रहा है। हम मानते है कि जब
मुँडेर पर कागा बोलता है वह घर में अतिथि के आने की पूर्व सूचना
होती है। मेरी चिन्ता का कारण यह नहीं है कि कागा नहीं रहेगा तो अब कोई
पक्षी किसी अतिथि के आने की सूचना लेकर भी नहीं आएगा। एक मनुष्य के नाते
मैं कम-से-कम इतना विकास तो कर ही चुका हूँ कि पलक-झपकते ही समस्त
आवश्यक-अनावश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकूँ। अब सूचना पाने या देने
के लिए मुझे किसी कबूतर या कौए की आवश्यकता नहीं रही है। तब कौओं के ग़ायब
होते जाने की बात से मुझे चिंता क्यों ? ज़रा ठहरिए, पहले इस
सूचनात्मक रिपोर्ट का अध्ययन कर लें। रिपोर्ट में आगे कहा गया
है-
‘पर्यावरण संतुलन को ध्यान में रखते हुए यदि हम सोचे तो मानव-जीवन में पक्षियों का बहुत बड़ा महत्त्व है। आकाश में उड़ते हुए ये पक्षी पर्यावरण की सफ़ाई के बहुत बड़े प्राकृतिक साधन हैं। गिद्ध, चीलें, कौए और इनके अतिरिक्त कई और पशु-पक्षी भी, हमारे लिए प्रकृति की ऐसी देन हैं, जो उनके समस्त कीटों, तथा जीवों तथा प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं का सफाया करते रहते हैं। जो धरती पर मानव-जीवन के लिए ख़तरा उत्पन्न कर सकते हैं। कितने ही पशु-पक्षी भी हमारे लिए प्रकृति की ऐसी देने हैं, जो समस्त कीटों, जीवों तथा प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं की सफ़ाया करते हैं। जो धरती पर मनाव-जीवन के लिए खतरा उतपन्न कर सकते हैं। कितने पशु-पक्षी हैं, जो कीट-कीटाणुओं तथा प्रदूषण-युक्त वस्तुओं को खाकर मानव-जीवन के लिए उपयोगी वनस्पतियों की रक्षा करते हैं। ऐसे पशु-पक्षियों का न रहना अथवा लुप्त हो जाना मनुष्य के लिए बहुत अधिक हानिकारक है।’
रिपोर्ट में कहा गया है कि गिद्ध, चीलें, बाज और कौए तथा अन्य अनेक प्रजातियों के ये पक्षी प्राकृतिक संतुलन रखने के लिए अपना असाधारण योग देते हैं। मानव-जीवन के लिए इन पक्षियों का जो महत्त्व है, उसका अनुमान हम अभी ठीक-ठीक नहीं लगा पा रहे हैं। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही तो भविष्य में हमें अनुभव होगा कि पशु-पक्षियों के छिन जाने से हम कितने बड़े घाटे में आ गए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि मनुष्य के लिए बहुत बड़ी और गंभीर चिंता का विषय है कि इन पक्षियों की संख्या दिन-पर-दिन कम होती जा रही है।
कौन नहीं जानता कि चीलें और गिद्ध मृत पशु-पक्षियों को अपना आहार बनाकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने का कर्त्तव्य पूरा करते रहे हैं। वे मृत जानवरों के शवों के गलने-सड़ने और प्रदूषण फैलने से पहले उसका सफ़ाया कर देते हैं। धरती का वातावरण विषैला होने से बचा रहता है। गिद्ध और चीलें ही नहीं, कौए भी पक्षियों की उसी श्रेणी में आते हैं, जिन्हें प्रकृति ने मनुष्य के लिए स्वच्छकार बनाकर भेजा है। ये पक्षी कूड़े-करकट के ढेरों में पड़ी गलने-सड़नेवाली वस्तुओं को खाकर समाप्त करते रहते हैं।
रिपोर्ट में कहा जाता है कि हमारी चिंता का विषय यह है कि जिस प्रकार गिद्ध और चीलें हमारे आकाश से ग़ायब होती चली गईं, इसी प्रकार अब कौए भी हमसे विदाई लेते जा रहे हैं। प्रश्न यह नहीं कि जब कोई भी इन पक्षियों का शिकार नहीं कर रहा है, कोई इन्हें मार नहीं रहा है। सता नहीं रहा है, तब क्या कारण है कि ये हमारी बस्तियों और शहरों से विदा होते जा रहे हैं, लुप्त या समाप्त होते जा रहे हैं ?
सिरसा स्थिति कृषि विज्ञान केंद्र में कार्यरत वैज्ञानिक डा. के.एन छाबड़ा ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि गिद्ध, चीलें और कौए इस क्षेत्र से ग़ायब होते जा रहे हैं। उन्होंने इस तथ्य पर गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका मानना है कि पिछले कुछ समय में कौओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से कमी आई है। पहले यदि कोई कौआ बिजली के तार पर करंट लगने से चिपककर मर जाता था तो उसके शोक में शोर करते हुए हज़ारों कौए इकट्ठे होकर आसमान सिर पर उठा लेते थे। आस-पास के पूरे क्षेत्र में कौओं का सैलाब उमड़ पड़ता था। पर अब ऐसा नहीं होता। अब यह पक्षी समूहों में बहुत कम नज़र आता है।
डा. छाबड़ा का कहना है कि ऐसा इसलिए नहीं होता कि कौओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है। अब कौए बहुत कम संख्या में रह गए हैं। जहाँ मनुष्य-जाति की संख्या बढ़ी है, वहीं पशु-पक्षियों की संख्या दिन-पर-दिन घटती जा रही है। परिणामतः पर्यावरण-संतुलन बिगड़ता जा रहा है। यह स्थिति मानव –जीवन के लिए अत्यधिक हानिकारक है। डा. छाबड़ा का कहना है कि बागों में कोयल भी अब बहुत कम दिखाई देती है।
पक्षियों की संख्या में जिस तेज़ी के साथ कमी आ रही है, उसका कारण बताते हुए वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि कृषि-उपज को बढ़ाने के या उसे सुरक्षित रखने के लिए आदमी ने जिस अंधाधुंध ढंग से कीटनाशक विषैली औषधियों का प्रायोग किया है, वह इन पक्षियों के लिए लुप्त हो जाने का सबसे बड़ा कारण है। वैज्ञानिक मानते हैं कि पशु-पक्षी अपनी प्राकृतिक बुद्धि से कीटनाशक दवाओं के प्रभाव को भली प्रकार भाँप लेते हैं और उन स्थानों से पलायन कर जाते हैं, जहाँ इनका अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है और जहाँ की वनस्पतियों एवं वातावरण में इन विषैली औषधियों के अंश घुल-मिल जाए हैं। किंतु जब अन्य स्थानों पर भी उन्हें वैसा ही प्रदूषण मिलता है तो इस कारण उनकी प्रजातियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगती हैं।
जब इस संबंध में अन्य-प्राणी विशेषज्ञों से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि ऐसे समस्त पशु-पक्षी जो मृत होते जा रहे हैं कि जिस मांस को वे खाते हैं, वह स्वयं अत्यधिक विषैला हो चुका होता है। यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है, क्योंकि हम अपने-अपने पालतू पशुओं को जो चारा दे रहे हैं, उस पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक औषधियों का विषैला प्रभाव चारे में बना रहता है। हम उसका सेवन करते रहते हैं। वे स्वयं तो समय से पहले काल का ग्रास बनते ही हैं, साथ ही उन पशु-पक्षियों को भी अपना निशाना बना लेते हैं, जो उनके मांस का सेवन करते हैं। अन्य जीवों की अपेक्षा प्रतिरोधक शक्ति कम होने के कारण वे शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि अब विकसित देशों में बहुत-सी कीटनाशक औषधियों तथा कुछ विशेष रासायनिक खादों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
इसे भी एक विडंबना ही कहा जाएगा कि पश्चिम के विकसित देशों ने अपने यहाँ जिन कीटनाशक औषधियों अथवा रासायनिक खादों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, वहाँ का व्यापारी-वर्ग उन्हीं को विकासशील देशों में भेजकर मोटा लाभ अर्जित कर रहा है।
वैज्ञानिकों का यह मानना है कि पर्यावरण में विषैले तत्त्वों के निरंतर बढ़ते रहने से पक्षियों की बहुत-सी प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं।
वास्तविकता यह है कि आज वातावरण में जिस ओर भी देखे, विष ही विष घुला हुआ है। गाँवों, बस्तियों, नगरों और महानगरों से लेकर जंगलों और पर्वतों तक में विस्फोटक पदार्थों का जिस ढंग से खुला प्रयोग हो रहा है, उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। डीज़ल और पैट्रॉल-जैसे ईंधन की बढती हुई खपत और उसके फलस्वरूप वातावरण में घुलते हुए धुएँ ने धरती पर जीवन को कितना दुष्कर बना दिया है, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। ऐसी प्रदूषित हवा, ऐसे प्रदूषित जल, ऐसे प्रदूषित आहार को सेवन करनेवाले पशु-पक्षी (हाँ जो मानव-जाति से अधिक संवेदनशील हैं) यदि इस विष को सहन न करते हुए लुप्त होते जा रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
विचारणीय बिंदु यह है कि इन मांस-भक्षी पक्षियों के लुप्त हो जाने के उपरांत जब कोई ऐसा प्राकृतिक साधन हमारे पास नहीं रहेगा, जिससे हम अपने मृत पशुओं को सड़ने-गलने से बचाकर ठिकाने लगा सकें तो उस समय क्या होगा ? गिद्ध, चील और कौए आदि मांस-भक्षी पक्षी तो हमारी धरती से विदा हो चुके होंगे, इनके दुर्गंध फैलानेवाले हाड़मांस से प्रदूषण फैलेगा और यह प्रदूषित हवा, हमें भाँति-भाँति की जानलेवा बीमारियों की भेंट चढ़ा देगी। और यह माँस-भक्षी पशु-पक्षी, जो प्रकृति ने हमें हर समय तत्पर रहनेवाले स्वच्छकारों के रूप में प्रदान किए थे, जब नहीं होंगे तो धरती पर मानव-जीवन कितना असुरक्षित हो जाएगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
विशेष बात यह है कि वातावरण में जो विष फैला हुआ है, जो प्रदूषण व्याप्त है, उसका उत्तरदायित्व भी हम मनुष्यों पर ही है। विकास की अंधी दौड़ में मानव यह भूल गया है कि वह जिस शाखा पर बैठा है, उसी को काटता भी जा रहा है। उदाहरण के लिए पेट्रोलियम पदार्थों का प्रयोग आरंभ करते हुए कब किसने यह सोचा था कि इसके विषैले धुएँ से वातावरण प्रदूषित होगा अथवा भाँति-भाँति के रासायनिक खादों तथा कीटनाशक औषधियों से अपनी उपज को बढ़ाने के एवं सुरक्षित रखने की लालसा में कब किसे यह खयाल आया होगा कि इसका विषैला प्रभाव हम पर ही नहीं, उन-पशु-पक्षियों के जीवन पर भी पड़ेगा, जो धरती पर मानव-जीवन के लिए आवश्यक हैं।
गिद्ध और चीलें लुप्तप्रायः हो चुके हैं। कौए ग़ायब हो रहे हैं। इस स्थिति को सामान्य मानकर छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। यह स्थिति इस ख़तरे की द्योतक है कि यदि यह सिलसिला चलता रहा तो धरती आदमी के अनुकूल नहीं रहेगी। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ेगा तो धरती पर मनुष्य का जीवन भी ख़तरे में पड़ जाएगा।
अस्तु, पशु-पक्षियों के लिए ही नहीं, स्वयं अपने लिए भी हमने इस धरती को रहने योग्य नहीं छोड़ा है। चील, गिद्ध और कौए जो धरती के प्रदूषित वातावरण से बचकर आकाश के स्वच्छ वातावरण में साँस लेने के लिए उड़ान भर लिया करते थे, अब वह आकाश भी उनके लिए अनुकूल नहीं रहा है। आकाश को भी मनुष्य ने कचरे और प्रदूषण से बुरी तरह भर दिया है।
हमारी इस चिंता की अभिव्यक्ति के लिए इस पुस्तक का सृजन हुआ है और हमें विश्वास है कि हम पर्यावरण-प्रदूषण की विषम परिस्थितियों का निदान करने में सक्षम हो सकेंगे।
‘पर्यावरण संतुलन को ध्यान में रखते हुए यदि हम सोचे तो मानव-जीवन में पक्षियों का बहुत बड़ा महत्त्व है। आकाश में उड़ते हुए ये पक्षी पर्यावरण की सफ़ाई के बहुत बड़े प्राकृतिक साधन हैं। गिद्ध, चीलें, कौए और इनके अतिरिक्त कई और पशु-पक्षी भी, हमारे लिए प्रकृति की ऐसी देन हैं, जो उनके समस्त कीटों, तथा जीवों तथा प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं का सफाया करते रहते हैं। जो धरती पर मानव-जीवन के लिए ख़तरा उत्पन्न कर सकते हैं। कितने ही पशु-पक्षी भी हमारे लिए प्रकृति की ऐसी देने हैं, जो समस्त कीटों, जीवों तथा प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं की सफ़ाया करते हैं। जो धरती पर मनाव-जीवन के लिए खतरा उतपन्न कर सकते हैं। कितने पशु-पक्षी हैं, जो कीट-कीटाणुओं तथा प्रदूषण-युक्त वस्तुओं को खाकर मानव-जीवन के लिए उपयोगी वनस्पतियों की रक्षा करते हैं। ऐसे पशु-पक्षियों का न रहना अथवा लुप्त हो जाना मनुष्य के लिए बहुत अधिक हानिकारक है।’
रिपोर्ट में कहा गया है कि गिद्ध, चीलें, बाज और कौए तथा अन्य अनेक प्रजातियों के ये पक्षी प्राकृतिक संतुलन रखने के लिए अपना असाधारण योग देते हैं। मानव-जीवन के लिए इन पक्षियों का जो महत्त्व है, उसका अनुमान हम अभी ठीक-ठीक नहीं लगा पा रहे हैं। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही तो भविष्य में हमें अनुभव होगा कि पशु-पक्षियों के छिन जाने से हम कितने बड़े घाटे में आ गए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि मनुष्य के लिए बहुत बड़ी और गंभीर चिंता का विषय है कि इन पक्षियों की संख्या दिन-पर-दिन कम होती जा रही है।
कौन नहीं जानता कि चीलें और गिद्ध मृत पशु-पक्षियों को अपना आहार बनाकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने का कर्त्तव्य पूरा करते रहे हैं। वे मृत जानवरों के शवों के गलने-सड़ने और प्रदूषण फैलने से पहले उसका सफ़ाया कर देते हैं। धरती का वातावरण विषैला होने से बचा रहता है। गिद्ध और चीलें ही नहीं, कौए भी पक्षियों की उसी श्रेणी में आते हैं, जिन्हें प्रकृति ने मनुष्य के लिए स्वच्छकार बनाकर भेजा है। ये पक्षी कूड़े-करकट के ढेरों में पड़ी गलने-सड़नेवाली वस्तुओं को खाकर समाप्त करते रहते हैं।
रिपोर्ट में कहा जाता है कि हमारी चिंता का विषय यह है कि जिस प्रकार गिद्ध और चीलें हमारे आकाश से ग़ायब होती चली गईं, इसी प्रकार अब कौए भी हमसे विदाई लेते जा रहे हैं। प्रश्न यह नहीं कि जब कोई भी इन पक्षियों का शिकार नहीं कर रहा है, कोई इन्हें मार नहीं रहा है। सता नहीं रहा है, तब क्या कारण है कि ये हमारी बस्तियों और शहरों से विदा होते जा रहे हैं, लुप्त या समाप्त होते जा रहे हैं ?
सिरसा स्थिति कृषि विज्ञान केंद्र में कार्यरत वैज्ञानिक डा. के.एन छाबड़ा ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि गिद्ध, चीलें और कौए इस क्षेत्र से ग़ायब होते जा रहे हैं। उन्होंने इस तथ्य पर गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका मानना है कि पिछले कुछ समय में कौओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से कमी आई है। पहले यदि कोई कौआ बिजली के तार पर करंट लगने से चिपककर मर जाता था तो उसके शोक में शोर करते हुए हज़ारों कौए इकट्ठे होकर आसमान सिर पर उठा लेते थे। आस-पास के पूरे क्षेत्र में कौओं का सैलाब उमड़ पड़ता था। पर अब ऐसा नहीं होता। अब यह पक्षी समूहों में बहुत कम नज़र आता है।
डा. छाबड़ा का कहना है कि ऐसा इसलिए नहीं होता कि कौओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है। अब कौए बहुत कम संख्या में रह गए हैं। जहाँ मनुष्य-जाति की संख्या बढ़ी है, वहीं पशु-पक्षियों की संख्या दिन-पर-दिन घटती जा रही है। परिणामतः पर्यावरण-संतुलन बिगड़ता जा रहा है। यह स्थिति मानव –जीवन के लिए अत्यधिक हानिकारक है। डा. छाबड़ा का कहना है कि बागों में कोयल भी अब बहुत कम दिखाई देती है।
पक्षियों की संख्या में जिस तेज़ी के साथ कमी आ रही है, उसका कारण बताते हुए वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि कृषि-उपज को बढ़ाने के या उसे सुरक्षित रखने के लिए आदमी ने जिस अंधाधुंध ढंग से कीटनाशक विषैली औषधियों का प्रायोग किया है, वह इन पक्षियों के लिए लुप्त हो जाने का सबसे बड़ा कारण है। वैज्ञानिक मानते हैं कि पशु-पक्षी अपनी प्राकृतिक बुद्धि से कीटनाशक दवाओं के प्रभाव को भली प्रकार भाँप लेते हैं और उन स्थानों से पलायन कर जाते हैं, जहाँ इनका अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है और जहाँ की वनस्पतियों एवं वातावरण में इन विषैली औषधियों के अंश घुल-मिल जाए हैं। किंतु जब अन्य स्थानों पर भी उन्हें वैसा ही प्रदूषण मिलता है तो इस कारण उनकी प्रजातियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगती हैं।
जब इस संबंध में अन्य-प्राणी विशेषज्ञों से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि ऐसे समस्त पशु-पक्षी जो मृत होते जा रहे हैं कि जिस मांस को वे खाते हैं, वह स्वयं अत्यधिक विषैला हो चुका होता है। यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है, क्योंकि हम अपने-अपने पालतू पशुओं को जो चारा दे रहे हैं, उस पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक औषधियों का विषैला प्रभाव चारे में बना रहता है। हम उसका सेवन करते रहते हैं। वे स्वयं तो समय से पहले काल का ग्रास बनते ही हैं, साथ ही उन पशु-पक्षियों को भी अपना निशाना बना लेते हैं, जो उनके मांस का सेवन करते हैं। अन्य जीवों की अपेक्षा प्रतिरोधक शक्ति कम होने के कारण वे शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि अब विकसित देशों में बहुत-सी कीटनाशक औषधियों तथा कुछ विशेष रासायनिक खादों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
इसे भी एक विडंबना ही कहा जाएगा कि पश्चिम के विकसित देशों ने अपने यहाँ जिन कीटनाशक औषधियों अथवा रासायनिक खादों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, वहाँ का व्यापारी-वर्ग उन्हीं को विकासशील देशों में भेजकर मोटा लाभ अर्जित कर रहा है।
वैज्ञानिकों का यह मानना है कि पर्यावरण में विषैले तत्त्वों के निरंतर बढ़ते रहने से पक्षियों की बहुत-सी प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं।
वास्तविकता यह है कि आज वातावरण में जिस ओर भी देखे, विष ही विष घुला हुआ है। गाँवों, बस्तियों, नगरों और महानगरों से लेकर जंगलों और पर्वतों तक में विस्फोटक पदार्थों का जिस ढंग से खुला प्रयोग हो रहा है, उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। डीज़ल और पैट्रॉल-जैसे ईंधन की बढती हुई खपत और उसके फलस्वरूप वातावरण में घुलते हुए धुएँ ने धरती पर जीवन को कितना दुष्कर बना दिया है, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। ऐसी प्रदूषित हवा, ऐसे प्रदूषित जल, ऐसे प्रदूषित आहार को सेवन करनेवाले पशु-पक्षी (हाँ जो मानव-जाति से अधिक संवेदनशील हैं) यदि इस विष को सहन न करते हुए लुप्त होते जा रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
विचारणीय बिंदु यह है कि इन मांस-भक्षी पक्षियों के लुप्त हो जाने के उपरांत जब कोई ऐसा प्राकृतिक साधन हमारे पास नहीं रहेगा, जिससे हम अपने मृत पशुओं को सड़ने-गलने से बचाकर ठिकाने लगा सकें तो उस समय क्या होगा ? गिद्ध, चील और कौए आदि मांस-भक्षी पक्षी तो हमारी धरती से विदा हो चुके होंगे, इनके दुर्गंध फैलानेवाले हाड़मांस से प्रदूषण फैलेगा और यह प्रदूषित हवा, हमें भाँति-भाँति की जानलेवा बीमारियों की भेंट चढ़ा देगी। और यह माँस-भक्षी पशु-पक्षी, जो प्रकृति ने हमें हर समय तत्पर रहनेवाले स्वच्छकारों के रूप में प्रदान किए थे, जब नहीं होंगे तो धरती पर मानव-जीवन कितना असुरक्षित हो जाएगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
विशेष बात यह है कि वातावरण में जो विष फैला हुआ है, जो प्रदूषण व्याप्त है, उसका उत्तरदायित्व भी हम मनुष्यों पर ही है। विकास की अंधी दौड़ में मानव यह भूल गया है कि वह जिस शाखा पर बैठा है, उसी को काटता भी जा रहा है। उदाहरण के लिए पेट्रोलियम पदार्थों का प्रयोग आरंभ करते हुए कब किसने यह सोचा था कि इसके विषैले धुएँ से वातावरण प्रदूषित होगा अथवा भाँति-भाँति के रासायनिक खादों तथा कीटनाशक औषधियों से अपनी उपज को बढ़ाने के एवं सुरक्षित रखने की लालसा में कब किसे यह खयाल आया होगा कि इसका विषैला प्रभाव हम पर ही नहीं, उन-पशु-पक्षियों के जीवन पर भी पड़ेगा, जो धरती पर मानव-जीवन के लिए आवश्यक हैं।
गिद्ध और चीलें लुप्तप्रायः हो चुके हैं। कौए ग़ायब हो रहे हैं। इस स्थिति को सामान्य मानकर छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। यह स्थिति इस ख़तरे की द्योतक है कि यदि यह सिलसिला चलता रहा तो धरती आदमी के अनुकूल नहीं रहेगी। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ेगा तो धरती पर मनुष्य का जीवन भी ख़तरे में पड़ जाएगा।
अस्तु, पशु-पक्षियों के लिए ही नहीं, स्वयं अपने लिए भी हमने इस धरती को रहने योग्य नहीं छोड़ा है। चील, गिद्ध और कौए जो धरती के प्रदूषित वातावरण से बचकर आकाश के स्वच्छ वातावरण में साँस लेने के लिए उड़ान भर लिया करते थे, अब वह आकाश भी उनके लिए अनुकूल नहीं रहा है। आकाश को भी मनुष्य ने कचरे और प्रदूषण से बुरी तरह भर दिया है।
हमारी इस चिंता की अभिव्यक्ति के लिए इस पुस्तक का सृजन हुआ है और हमें विश्वास है कि हम पर्यावरण-प्रदूषण की विषम परिस्थितियों का निदान करने में सक्षम हो सकेंगे।
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
कागा, उड़ा आकाश में
विकास के नाम पर मनुष्य ने प्रकृति के साथ जितना क्रूर व्यवहार किया है,
उसका परिणाम आज स्वयं मनुष्य-जाति को ही भुगतने के लिए विविश होना पड़ रहा
है। गिद्धों, कौओं और चीलों-जैसे पक्षियों को तो हमने मात्र प्रतीकों के
रूप में वर्णन किया है। गिद्धों, कौओं और चीलों-जैसे पक्षियों को तो हमने
मात्र प्रतीकों के रूप में वर्णन किया है, धरती से आकाश तक कोई भी स्थान
आज ऐसा नहीं है, जो मनुष्यों द्वारा फैलाए गए प्रदूषण से मुक्त हो। बढ़ते
हुए इसी प्रदूषण के कारण पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ, जो धरती पर
मावन-जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी थीं, लुप्त होती जा रही हैं। गिद्ध और
चीलें, जो प्रकृति की ओर से मानव-जाति के लिए नियुक्त किए गए स्वच्छकार
थे, अब कभी-कभी ही दिखाई देते हैं। कौए जो भोर होते ही प्रत्येक घर की
मुँडेर पर अपनी कर्कश आवाज़ से सोते हुए प्राणियों को जगाया करते थे,
निरंतर कम होते जा रहे हैं। पर्यावरण का संतुलन बनाए रखनेवाले ये पक्षी अब
आकाश में भी कभी-कभी तैरते दिखाई देते हैं। अब आकाश भी उनके लिए अनुकूल
नहीं रहा है।
कुछ समय पूर्व मध्य प्रदेश के भोपाल तथा आस-पास के कई दूसरे नगरों और बस्तियों में आकाश से कुछ ऐसे पिंड गिरते देखे गये थे, जिनके संबंध में वैज्ञानिकों का कहना था कि ये अंतरिक्ष में जमा हो रहे कचरे के अंश हैं, जो इंसानों द्वारा छोडे़ गए हैं। इन पिण्डों के संबंध में लगभग सभी राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों के विस्तृत समाचार प्रकाशित हुए थे। इन सभी समाचारों में यह आशंका व्यक्त की गयी है कि पिंड अंतरिक्ष में बेकार हो गए उपग्रहों के मलबे हैं। आकाश के गिरे हुए पिंडों को देखकर विशेषज्ञों ने यह भी संभावना व्यक्त की थी कि ये नाभिकीय ऊर्जा से संचालित जासूसी उपग्रह रहे होंगे, क्योंकि ये पिंड कुछ ऐसे आकार के थे, जो गिरने पर धरती तक पहुँच सकते हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस समय पृथ्वी की कक्षा में लगभग ढाई हज़ार ऐसे उपग्रह मौजूद हैं जो मृत या विकृत हो चुके हैं अथवा कार्य करने के योग्य नहीं रहे हैं। ये सारे उपग्रह जासूसी के उद्देश्य से अंतरिक्ष में छोड़े गए थे और ये सभी नाभिकीय ईंधन से संचालित थे ? सोचिए कि एक या कुछ विकसित देशों ने केवल दूसरे देशों की जासूसी करने के लिए हज़ारों की संख्या में रक्षा-संबंधी जानकारियाँ प्राप्त करने वाले ये उपग्रह ज़मीन से आकाश में छोड़े, जिनमें लगभग ढाई हज़ार उपग्रह अब मात्र मलबे में परिवर्तित हो चुके हैं। वैज्ञानिकों ने उस समय यह भी बताया था कि खंडित हो गए उपग्रहों का मलबा अंतरिक्ष में एकत्र होता जा रहा है जितने उपग्रह खंडित हुए हैं उनमें से 80 प्रतिशत नाभिकीय ऊर्जा से संचालित होते थे।
वैज्ञानिकों का अनुमान यह भी है कि इस समय राकेटों तथा उपग्रहों के छोटे-बड़े करीब बीस हज़ार टुकडे मलबे के रूप में अंतरिक्ष में भटक रहे हैं। फिलहाल अपने उद्देश्य के लिए कार्यरत हैं।
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत विशेषज्ञों ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट देते हुए बताया था कि पिछले चालीस वर्षों के दौरान आंतरिक्ष में भेजे गए 3500 में भी अधिक राकेटों एवं उपग्रहों के अब तक 22 हज़ार से ज्यादा टुकड़े हो चुके हैं। इस समय सिर्फ़ 350 उपग्रह ऐसे हैं, जो कर्यरत हैं। हज़ारों टुकडों में विखंडित हो गए उपग्रहों में लगभग 15 हज़ार टुकड़े ऐसे हैं, जो स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार इन राकेटों अथवा अंतरिक्ष यानों के सात हज़ार से आठ हज़ार तक जो टुकड़े शेष रह गए हैं, वे अब भी आकाश में चक्कर लगा रहे हैं। राकेटों और उपग्रहों के इन विखंडित टुकडों को हम आकाश का ऐसा ‘कचरा’ कह सकते हैं, जो मनुष्य ने फैलाया है और जो अब अंतरिक्ष के वातावरण को भी प्रदूषित कर रहा है।
वैज्ञानिकों द्वारा अनुमान लगाया गया है कि अंतरिक के इस मलबे का भार इस समय 20 लाख किलोग्राम की सीमा को पार कर गया है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि अंतरिक्ष में मलबे का रूप लेनेवाले इन टुकड़ों की संख्या प्रति वर्ष दो सौ की संख्या में बढ़ रही है।
याद कीजिए कि अंतरिक्ष की कक्षा में प्रवेश करने वाला मानव-द्वारा निर्मित यान सबसे पहले 1957 में रूस द्वारा छोड़ा गया था। जिसको रूसी वैज्ञानिकों ने स्पुतनिक नाम दिया था। बाद में अमेरिका ने भी इस मैदान में अपने क़दम आगे बढ़ाए। उसने ‘एक्सप्लोरर’ नाम का एक अंतरिक्ष यान आकाश में छोड़ा। यह रूस और अमेरिका की ओर से अंतरिक्ष पर विजय पाने या उसका अनुसंधान करके महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करने के लक्ष्य की ओर पहला क़दम था। इस अभियान का उद्देश्य उन रहस्यों का पता लगाना था, जो ब्राह्मांड में मौजूद तो है किंतु जिन तक अभी आदमी की पहुँच नहीं हो पाई है। अमेरिका द्वारा छोड़े गए अंतरिक्ष-यान ‘एक्सप्लोर’ के उपरांत तो दुनिया के विकसित देशों में ऐसे यानों का ताँता –सा लग गया। कई विकासशील देश भी विज्ञान की इस छलांग का साथ देने के लिए कमर कसते दिखाई दिए। परिणामतः पिछले पचास वर्षों के बीच 3500 हज़ार से भी ज़्यादा अंतरिक्ष यान आकाश में छोड़े जा चुके हैं। ये सभी अंतरिक्ष-यान पृथ्वी की निरंतर परिक्रमा करते रहे और इनमें से बहुत कम यान ऐसे हैं, जो अब तक क्रियाशील हैं। उपग्रहों में से अधिकांश ऐसे हैं जो अब बेकार होकर कचरे का रूप धारण कर चुके हैं। यह विषैला कचरा अंतरिक्ष में निरंतर जमा होता जा रहा है।
कुछ समय पूर्व मध्य प्रदेश के भोपाल तथा आस-पास के कई दूसरे नगरों और बस्तियों में आकाश से कुछ ऐसे पिंड गिरते देखे गये थे, जिनके संबंध में वैज्ञानिकों का कहना था कि ये अंतरिक्ष में जमा हो रहे कचरे के अंश हैं, जो इंसानों द्वारा छोडे़ गए हैं। इन पिण्डों के संबंध में लगभग सभी राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों के विस्तृत समाचार प्रकाशित हुए थे। इन सभी समाचारों में यह आशंका व्यक्त की गयी है कि पिंड अंतरिक्ष में बेकार हो गए उपग्रहों के मलबे हैं। आकाश के गिरे हुए पिंडों को देखकर विशेषज्ञों ने यह भी संभावना व्यक्त की थी कि ये नाभिकीय ऊर्जा से संचालित जासूसी उपग्रह रहे होंगे, क्योंकि ये पिंड कुछ ऐसे आकार के थे, जो गिरने पर धरती तक पहुँच सकते हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस समय पृथ्वी की कक्षा में लगभग ढाई हज़ार ऐसे उपग्रह मौजूद हैं जो मृत या विकृत हो चुके हैं अथवा कार्य करने के योग्य नहीं रहे हैं। ये सारे उपग्रह जासूसी के उद्देश्य से अंतरिक्ष में छोड़े गए थे और ये सभी नाभिकीय ईंधन से संचालित थे ? सोचिए कि एक या कुछ विकसित देशों ने केवल दूसरे देशों की जासूसी करने के लिए हज़ारों की संख्या में रक्षा-संबंधी जानकारियाँ प्राप्त करने वाले ये उपग्रह ज़मीन से आकाश में छोड़े, जिनमें लगभग ढाई हज़ार उपग्रह अब मात्र मलबे में परिवर्तित हो चुके हैं। वैज्ञानिकों ने उस समय यह भी बताया था कि खंडित हो गए उपग्रहों का मलबा अंतरिक्ष में एकत्र होता जा रहा है जितने उपग्रह खंडित हुए हैं उनमें से 80 प्रतिशत नाभिकीय ऊर्जा से संचालित होते थे।
वैज्ञानिकों का अनुमान यह भी है कि इस समय राकेटों तथा उपग्रहों के छोटे-बड़े करीब बीस हज़ार टुकडे मलबे के रूप में अंतरिक्ष में भटक रहे हैं। फिलहाल अपने उद्देश्य के लिए कार्यरत हैं।
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत विशेषज्ञों ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट देते हुए बताया था कि पिछले चालीस वर्षों के दौरान आंतरिक्ष में भेजे गए 3500 में भी अधिक राकेटों एवं उपग्रहों के अब तक 22 हज़ार से ज्यादा टुकड़े हो चुके हैं। इस समय सिर्फ़ 350 उपग्रह ऐसे हैं, जो कर्यरत हैं। हज़ारों टुकडों में विखंडित हो गए उपग्रहों में लगभग 15 हज़ार टुकड़े ऐसे हैं, जो स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार इन राकेटों अथवा अंतरिक्ष यानों के सात हज़ार से आठ हज़ार तक जो टुकड़े शेष रह गए हैं, वे अब भी आकाश में चक्कर लगा रहे हैं। राकेटों और उपग्रहों के इन विखंडित टुकडों को हम आकाश का ऐसा ‘कचरा’ कह सकते हैं, जो मनुष्य ने फैलाया है और जो अब अंतरिक्ष के वातावरण को भी प्रदूषित कर रहा है।
वैज्ञानिकों द्वारा अनुमान लगाया गया है कि अंतरिक के इस मलबे का भार इस समय 20 लाख किलोग्राम की सीमा को पार कर गया है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि अंतरिक्ष में मलबे का रूप लेनेवाले इन टुकड़ों की संख्या प्रति वर्ष दो सौ की संख्या में बढ़ रही है।
याद कीजिए कि अंतरिक्ष की कक्षा में प्रवेश करने वाला मानव-द्वारा निर्मित यान सबसे पहले 1957 में रूस द्वारा छोड़ा गया था। जिसको रूसी वैज्ञानिकों ने स्पुतनिक नाम दिया था। बाद में अमेरिका ने भी इस मैदान में अपने क़दम आगे बढ़ाए। उसने ‘एक्सप्लोरर’ नाम का एक अंतरिक्ष यान आकाश में छोड़ा। यह रूस और अमेरिका की ओर से अंतरिक्ष पर विजय पाने या उसका अनुसंधान करके महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करने के लक्ष्य की ओर पहला क़दम था। इस अभियान का उद्देश्य उन रहस्यों का पता लगाना था, जो ब्राह्मांड में मौजूद तो है किंतु जिन तक अभी आदमी की पहुँच नहीं हो पाई है। अमेरिका द्वारा छोड़े गए अंतरिक्ष-यान ‘एक्सप्लोर’ के उपरांत तो दुनिया के विकसित देशों में ऐसे यानों का ताँता –सा लग गया। कई विकासशील देश भी विज्ञान की इस छलांग का साथ देने के लिए कमर कसते दिखाई दिए। परिणामतः पिछले पचास वर्षों के बीच 3500 हज़ार से भी ज़्यादा अंतरिक्ष यान आकाश में छोड़े जा चुके हैं। ये सभी अंतरिक्ष-यान पृथ्वी की निरंतर परिक्रमा करते रहे और इनमें से बहुत कम यान ऐसे हैं, जो अब तक क्रियाशील हैं। उपग्रहों में से अधिकांश ऐसे हैं जो अब बेकार होकर कचरे का रूप धारण कर चुके हैं। यह विषैला कचरा अंतरिक्ष में निरंतर जमा होता जा रहा है।
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